
झारखंड भारत का ऐसा राज्य है जहां पेड़, नदी, पहाड़ बहुत हैं। यह प्राकृतिक वातावरण जंगल के जीव जंतुओं के लिए अनूकूल है। झारखंड राज्य में जल , जंगल, जमीन पर अन्य जीव जंतुओं के साथ ही हाथी भी बड़ी संख्या में हैं। भारतीय संस्कृति और धार्मिक मान्यता के अनुसार हाथी केवल जंगल का जीव नहीं, बल्कि आदिवासी समाज की आस्था और सांस्कृतिक पहचान का प्रतीक है।
सदियों से संथाल, मुंडा, उरांव, हो, बिरहोर जैसे आदिवासी समुदायों ने हाथी को ‘जंगल का देवता’ मानकर पूजा और सम्मान दिया है। बदलते वक्त के साथ जब जंगल सिकुड़ते गए, विकास की रफ्तार बढ़ी, तो यह रिश्ता अब टकराव में भी बदलने लगा है।
राज्य के जंगलों में हाथियों का इतिहास उतना ही पुराना है, जितनी यहां की सभ्यता। खासकर दक्षिणी और पश्चिमी झारखंड- पश्चिमी सिंहभूम, सरायकेला-खरसावां, लातेहार, गुमला, रांची, दुमका और गोड्डा जिलों में हाथियों की बड़ी आबादी है। वन विभाग के आंकड़ों के मुताबिक राज्य में करीब 600 जंगली हाथी हैं, जो विभिन्न इलाकों में विचरण करते हैं।
आदिवासी समाज में हाथी को केवल एक जीव नहीं, बल्कि पूर्वजों का प्रतीक, देवी-देवताओं का संदेशवाहक और जंगल का राजा माना जाता है। मान्यता है कि जब हाथी गांव की सीमा पर दिखाई देता है, तो यह किसी बड़े बदलाव या शुभ अवसर का संकेत होता है। कई जगहों पर लोग मानते हैं कि हाथी अपने साथ पूर्वजों की आत्माओं का आशीर्वाद लेकर आता है।
संथाल परगना क्षेत्र में करम और सोहराय जैसे पर्वों में हाथी का विशेष स्थान है। गीतों और लोक कथाओं में हाथी को वीरता, ताकत और जंगल की समृद्धि का प्रतीक बताया गया है। उरांव और मुंडा समुदायों में मान्यता है कि हाथी जंगल का संरक्षक है, और उसकी उपस्थिति प्राकृतिक संतुलन बनाए रखती है।
राज्य के कई इलाकों में यह भी प्रचलित है कि यदि किसी खेत या गांव में हाथी के पैरों के निशान बन जाएं, तो उसे पवित्र माना जाता है। इन निशानों में जमा पानी को लोग औषधीय और शुभ मानते हैं। बीमारियों से राहत पाने के लिए इस पानी का इस्तेमाल किया जाता है।
हाल के वर्षों में जंगलों की कटाई, खनन परियोजनाओं और सड़कों के निर्माण के कारण हाथियों के पारंपरिक गलियारे बाधित हुए हैं। भोजन और पानी की तलाश में हाथी अब गांवों की ओर बढ़ने लगे हैं। इससे खेत-खलिहानों को नुकसान होता है, कई बार लोगों की जान भी जाती है। वन विभाग की 2022 की रिपोर्ट के अनुसार, झारखंड में हाथियों के कारण उस वर्ष करीब 80 लोगों की जान गई, सैकड़ों घर और फसलें बर्बाद हुईं। बावजूद इसके, आदिवासी समाज में हाथियों के प्रति सम्मान में कोई कमी नहीं आई। ग्रामीण इसे देवताओं का क्रोध या प्राकृतिक असंतुलन का नतीजा मानते हैं, न कि हाथी की गलती।
वन विभाग हाथियों और इंसानों के बीच टकराव कम करने के लिए कई योजनाएं चला रहा है। राज्य में 14 हाथी गलियारों को चिन्हित किया गया है, ताकि हाथियों का सुरक्षित आवागमन हो सके। साथ ही, प्रभावित परिवारों को मुआवजा देने और जागरूकता अभियान चलाने पर भी जोर दिया जा रहा है। वन अधिकारियों के मुताबिक, जब तक जंगलों और प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा नहीं होगी, यह संघर्ष कम नहीं हो सकता। ज़रूरत इस बात की भी है कि विकास योजनाओं में आदिवासी समाज की सांस्कृतिक भावनाओं को समझा जाए।हाथी-आदिवासी संबंध केवल आस्था का विषय नहीं, बल्कि यह उनकी सांस्कृतिक पहचान और जीवनशैली का हिस्सा है। संथाली और मुंडारी लोकगीतों से लेकर ग्रामीणों की रोजमर्रा की बातों तक में हाथी का ज़िक्र मिलता है। यही वजह है कि नुकसान के बावजूद आदिवासी हाथी को दुश्मन नहीं मानते। यहाँ के लोग कहते हैं- जहां हाथी है, वहां जंगल जीवित है। जंगल रहेगा तो हम रहेंगे।
– एम. अखलाक
( लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं लोक संस्कृति के अध्येता हैं। )
बहुत बहुत धन्यवाद भाई।