पितृपक्ष : कुटुम्ब की महत्ता, प्रकृति , समन्वय और दायित्व बोध जाग्रति की अवधि 

पूरे संसार में अपने पूर्वजों के स्मरण करने और श्रृद्धांजलि अर्पित करने की परंपरा है। लेकिन भारत में अपने पूर्वजों के स्मरण की यह पितृपक्ष की अवधि व्यक्तित्व निर्माण, कुटुम्ब महत्ता और प्रकृति से समन्वय की अद्भुत अवधि है।

भारतीय और पश्चिमी चिंतन में एक आधारभूत अंतर है। पश्चिमी चिंतन केवल वाह्य जगत अर्थात भौतिक सृष्टि तक सीमित है जबकि भारतीय चिंतन लौकिक से अधिक अलौकिक सृष्टि तक व्यापक है। विकास के लिये जितना जोर वाह्य शक्ति और साधनों पर दिया जाता है उससे अधिक आंतरिक ऊर्जा के संचार पर दिया जाता है। इसे हम सनातन परंपरा के सभी सांस्कृतिक, सामाजिक और धार्मिक समागमों से समझ सकते हैं और यही विशेषता पूर्वजों के स्मरण केलिये पितृपक्ष के इन दिनों की है। पूर्वजों के स्मरण केलिए पितृपक्ष की यह अवधि अश्विन माह की एकम् से अमावस्या तक रहती है। इस वर्ष “पितृपक्ष” आठ सितंबर से आरंभ हो गया है और 21 सितंबर को अमावस्या के साथ समापन होगा। सूर्योदय से सूर्यास्त तक की पूरी दिनचर्या आंतरिक ऊर्जा जाग्रत करने और आरोग्य शक्ति अर्जित करने की अद्भुत प्रक्रिया है। जबकि इसके कर्मकांड कुटुम्ब समन्वय और प्रकृति से समन्वय बनाकर पर्यावरण संरक्षण के निमित्त हैं। पितृपक्ष की दिनचर्या पर चर्चा करने से पहले इन तीन बिन्दुओं को समझना आवश्यक है । पहली व्यक्ति के अवचेतन की शक्ति, दूसरी आंतरिक ऊर्जा और तीसरी कुटुम्बिक शक्ति एवं ऊर्जा। आंतरिक ऊर्जा और अवचेतन की शक्ति जाग्रत करने के लिये एकाग्रता चाहिए। ऐसी एकाग्रता जिसमें मन के साथ सभी ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियों संयुक्त हों। इसके लिये पितृपक्ष में ब्रह्म मुहूर्त में उठना, सूर्योदय से पूर्व नदी या सरोवर पर स्नान करके सूर्य को जल अर्पित करने का विधान बनाया गया। घर से नदी या सरोवर जाने में दिवंगत पूर्वजों का स्मरण रहता है। इससे चित्त में एकाग्रता आती है। स्नान करके लौटने में सबका स्मरण बना रहता है। इतनी देर किसी सकारात्मक विचार की एकाग्रता से आत्मशक्ति जाग्रत होती है। यही आत्मशक्ति व्यक्ति पराक्रम और पुरुषार्थ में गुणवत्ता प्रदान करती है। घर आकर पूजन हवन और पाँच ग्रास निकालना मनोवैज्ञानिक रूप से व्यक्ति, परिवार और प्रकृति से समन्वय का साधन है। इन पांच ग्रास में मछली, चींटी, कौआ, गाय और कुत्ता होते हैं। अर्थात जलचर, थलचर और नभचर तीनों प्रकार के जीवों के संरक्षण का संदेश है।

पितृपक्ष या पितरों की महत्ता का उल्लेख सभी पुराणों में है । श्रीमद्भागवत की रचना ही पूर्वजों की मुक्ति के लिये मानी जाती है। विस्तृत वर्णन गरुण पुराण में है।

पूजन विधान

पितृपक्ष में दिवंगत कुटुम्बजनों का स्मरण करने को श्राद्ध कहा जाता है। “श्रृद्धा” की केन्द्रीय चेतना को श्राद्ध कहा जाता है।सबसे पहले पूर्वजों के प्रतीक के रूप में जौं के आटे का एक छोटा पिण्ड बनाया जाता है। पिण्ड स्थापित करके पितृ गायत्री मंत्र के साथ 108 बार जल अर्पित किया जाता है। पूजन-अर्पण के बाद इस पिण्ड को पीपल के नीचे रखकर अर्पित किये गये जल को किसी बहते जल स्त्रोत में प्रवाहित कर दिया जाता है । फिर कमसे कम एक “अभ्यागत” अर्थात आमंत्रित अतिथि को भोजन कराने का विधान हैं। यह माना जाता है कि हमारे परिवार जन भले हमारे बीच से विदा हो गये हैं पर उनकी ऊर्जा अवश्य परिवार में रहती है। समाज में ऐसे अनेक उदाहरण हैं कि कार्य सिद्धि के लिये अपने दिवंगत परिवार जन का स्मरण करके कार्य आरंभ करना और उसमें सफलता भी मिलती है । 

पाँच ग्रास निकालने का महत्व 

इसमें पूजन हवन विधि के बाद महत्वपूर्ण है पाँच अलग अलग प्राणियों के लिये ग्रास निकालना । इनमें गाय, कुत्ता, मछली, चींटी और कौआ हैं। पितरों के संदर्भ इन पाँच प्राणियों का जो महत्व पुराणों में वर्णित है उससे अलग इनका समाज और व्यक्तित्व निर्माण से गहरा संबंध है । पितृपक्ष में ग्रास निकालने की परंपरा बनाकर इनका समाज से अटूट रिश्ता बनाने का प्रयास किया गया है। सबसे पहले गाय की महत्ता को देखिये। गाय पर जितना साहित्य भारत में है उतना संसार में कहीं नहीं। सभी पुराणों वेदों में वर्णन है । सतयुग से द्वापर तक लगभग अधिकांश महायुद्ध के केन्द्र में गाय रही है । गाय समाज जीवन में जितनी उपयोगी है उतना कोई दूसरा प्राणी नहीं। गाय का दूध हृदयरोग, मधुमेह, कैंसर उपचार में उपयोगी है। गाय का गौबर कृषि के लिये उपयोगी। गौमूत्र से औषधि तैयार होती है। गाय की सांस से हानिकारक वेक्टीरिया नष्ट होते हैं। इसीलिए भारत के विभिन्न तीज त्यौहारों में अलग अलग माध्यम से गाय को जोड़ा गया और महत्व को स्थापित किया गया है। गाय व्यक्तिगत स्वास्थ्य के लिये तो उपयोगी है ही साथ ही परिवार और समाज की अर्थ व्यवस्था में भी बहुत उपयोगी है। इसके साथ गाय के जीवन से व्यक्ति और समाज को सर्व उपयोगी होने और सेवाभाव में जीने का संदेश भी मिलता है । गाय सबसे सरल, सहज और सेवाभावी जीव है। तभी सरल सज्जन और सहनशीलता के लिये गाय का उदाहरण दिया जाता है ।

दूसरा ग्रास कुत्ते के लिये निकाला जाता है। कुत्ता जैसा स्वामी भक्त जीव दूसरा नहीं होता। वह कभी भी पीठ नहीं दिखाता, यदि रणनीति के अंतर्गत वह पीछे हटता है तब भी भौंकता रहता है और अवसर मिलते ही पलटकर हमला करता है। अपने प्राण देकर भी स्वामी की रक्षा करता है। उसकी सूंघने की शक्ति अद्भुत होती है। वह नींद में भी जागरुक रहता है। इसीलिए दत्तात्रेय जी ने कुत्ते को एक आदर्श प्राणी बताया समाज से सदैव सीखने का आव्हान किया। भारतीय मनीषियों ने भी विभिन्न कथाओं के माध्यम से कुत्ते के महत्व को समझाया। धर्मराज युधिष्ठिर के साथ कुत्ते की स्वर्गारोहण यात्रा सुप्रसिद्ध है । यहाँ भी पितरों की सेवा को साक्षी बनाकर कुत्ते से परिवार और समाज को जोड़ा गया है । 

पितृपक्ष एवं श्राद्ध में तीसरा ग्रास मछली के लिये निकाला जाता है तथा नदी तालाब में जाकर डाला जाता है। जल किसी भी प्राणी के जीवन का आधार होता है जल की कमी हो या जल अशुद्ध हो तो जीवन संकट में पड़ जाता है और जल का सबसे महत्वपूर्ण स्त्रोत नदी और सरोवर होते हैं। जहाँ मछलियाँ रहतीं हैं। नदी सरोवर या कुएं के जल को शुद्ध रखने का काम मछली करती है । नदी तालाबों में जल को प्रदूषित करने वाले कीटों को मछली अपना आहार बना लेती है । लगता है कि प्रकृति ने जल शुद्धिकरण के लिये ही मछली को बनाया है। अज्ञानता में मनुष्य मछली का कोई अहित न करे इसलिये पितृपक्ष के माध्यम से मछली के संरक्षण को महत्व दिया गया। अलग-अलग पुराण कथाओं में मछली के महत्व को समझाया गया है। मछली के रूप में नारायण के अवतार की कथा भी है। मछली के महत्व को समाज भूले नहीं इसलिये पितृ पूजन से भी मछली को जोड़ा गया। आज भी भारतीय साहित्य के जानकार लोग मछलियों को दाना डालने जाते हैं। 

चौथा ग्रास चींटी के लिये निकाला जाता है। चींटी के महत्व पर भी भारतीय साहित्य में अनेक कहानियां हैं। पितृपक्ष में चींटी को भी समाज से जोड़ा गया । आधुनिक विज्ञान के शोध के अनुसार चींटी धरती के पुनः चक्र को सक्रिय करने में सबसे महत्वपूर्ण होती है। धरती का यह पुनः चक्र ही धरती के पोषक तत्वों को पुनर्जीवित करता है। इसी से प्राणियों के जीवन श्रृंखला को निरंतर रहती है। समाज चींटी का संरक्षण करे, इसके लिये विभिन्न कथाओं के माध्यम से समाज को जागरुक किया गया और पितृ पूजन से भी जोड़ा। चींटी की सूंघने की शक्ति अद्भुत होती है । चींटियों में सामाजिक अनुशासन भी अद्भुत होता है । वे श्रृंखला बद्ध होकर चलतीं हैं। कभी कतार नहीं तोड़तीं। कतार को अनुशासित करने के लिये एक टीम चलती है। भोजन खोजने वाली टीम अलग होती है और भोजन ढोकर लाने वाली भी टीम अलग होती है। चींटीयों में सामाजिक एकत्व और संगठनात्मक अनुशासन अद्भुत होता है। चींटी अपने बिल के आसपास मेहमानों के रूप में कीटों को संरक्षण देती हैं। उन्हे भोजन भी देती हैं। चींटी की गणना सबसे छोटे जीवों में कई जाती है। लेकिन उसकी तकनीक विलक्षण है। हाथी भी चींटी से डरता है। चींटी जहाँ धरती पर जीवन के संतुलन के लिये उपयोगी है वहीं मनुष्य, परिवार, समाज को संगठनात्मक अनुशासन और अतिथि सेवा का संदेश देती है। चींटी से यह संदेश भी है कि भले हमारा अस्तित्व कितना ही लघुतम हो किन्तु मनोबल ऐसा होना चाहिए कि हाथी समान विशालकाय जीव भी भयभीत रहे और संकट आने पर हाथी को भी धराशाई किया जा सके। 

पितृपक्ष में पाँचवा ग्रास कौए के लिये निकाला जाता है। कौए की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसकी जीवन शैली सर्वाधिक आत्म अनुशासित होती है इसीलिए यह सबसे कम बीमार होता है, यह भोजन को देखकर उसमें अशुद्धता भांप लेता है और हानिकारक होने का आभास होते ही ग्रहण नहीं करता। यह भूख से तो मर जाता है पर बीमारी से कभी नहीं मरता। कौए को कभी थकान नहीं होती। कौआ उन विरले प्राणियों में से एक है जो नर और मादा दोनों एक ही आकार के होते हैं। यदि जोड़ा साथ हो तो उन्हे यह पहचानना कठिन होता है कि कौन नर है और कौन मादा । कौए समूह बनाकर रहते हैं। यदि एक साथी कौए को कुछ हो जाये तो दूसरा कौआ साथी भोजन ग्रहण नहीं करता। इसकी समझ बहुत तीव्र होती है, इसकी देखनेकी सामर्थ्य भी बहुत तीखी होती है । इसीलिए किसी को व्यंग में कौए की उपाधि दे देते हैं। कौए का पौराणिक महत्व भी है। कौए ने समुद्र मंथन में अमृत चखा था । पौराणिक महत्व के अतिरिक्त कौए को समाज से जोड़ने का संदेश यही है कि समाज का प्रत्येक व्यक्ति कुशाग्र हो, दूरदृष्टी हो, समाज संगठित हो, पति पत्नि के बीच समता का व्यवहार हो एवं एक दूसरे की चिंता की जाना चाहिए। 

भारतीय वाड्मय में समाज जीवन में अच्छे व्यवहार की सीख देने वाली अनेक कथाएं हैं पर समाज व्यवहारिक रूप से भी अपने प्रेरणादायकों से जुड़ा रहे इसलिये पितृपक्ष में इन प्रतीकों के माध्यम से समाज को जाग्रत करने का कर्मकांड निर्धारित किया गया।

 पुराणों में वर्णित पूर्वज महत्ता के अनुरूप पितृपक्ष में पितृदेवों के तपृण के माध्यम से समाज जीवन को स्वस्थ्य सुन्दर बनाने का विधान है। 

भौतिक प्रगति आवश्यक है। लेकिन केवल भौतिकवाद पर जोर देना प्रगति दीर्घकालिक नहीं होती। इसके लिये अपनी मौलिक परंपराओं के साथ चलना आवश्यक है। यह ठीक उसी प्रकार है जैसे वृक्ष को दीर्घजीवी होने केलिये जड़ों का गहरा होना आवश्यक है। सनातन की तीज त्यौहार परंपराएँ और लौकिक विधान सामाजिक और सांस्कृतिक जड़ों को गहरा करने वाली हैं। इनमें पितृपक्ष की यह अवधि अत्याधिक महत्वपूर्ण है।

– रमेश शर्मा

लेखक धर्म , संस्कृति, इतिहास के विषय विशेषज्ञ एवं वरिष्ठ पत्रकार हैं। श्री शर्मा भारतीय संस्कृति की विशेषताओं को आलेख, उद्बबोधन , संवाद , संगोष्ठी के माध्यम से नई पीढ़ी तक पहुंचाने के वैचारिक अनुष्ठान में निरंतर संलग्न हैं।

 

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