(  ओमप्रकाश शर्मा  )

हाल ही में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने संसद में भाषण देते हुए कांग्रेस के वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह को अनुभवों से तराशे हुए गंभीर राजनेता की संज्ञा दी है। नरेन्द्र मोदी एक बहुत ही सुलझे हुए राजनेता है और अपने दल की विचारधारा को आगे बढ़ाने के लिए वे अथक परिश्रम करते है। भारत की आजादी के समय ब्रिटेन के प्रधानमंत्री रहे विंस्टन चर्चिल ने एकबार कहा था --‘‘राजनीति कोई खेल नही, यह सबसे गंभीर व्यवसाय है।’’ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने शायद चर्चिल के इसी सूत्र को नये दौर की भारतीय जनता पार्टी के लिए लागू कर दिया है। लेकिन दिग्विजय सिंह एक अलग मिट्टी के बने हुए प्रतीत होते है।
कांग्रेस पार्टी वर्तमान में अपने इतिहास के सबसे निराशाजनक दौर से गुजर रही है। पार्टी के बरसों पुराने अनेक नेता अपनी निष्ठा बदल रहे है या निष्ठाहीन होकर कांग्रेस में ही बने हुए है। ऐसे दौर में जबकि कांग्रेस पार्टी का जहाज निराशा के समुद्र में गोते लगा रहा है तब भी दिग्विजय सिंह जैसी अटूट निष्ठा वाले लोग इस जहाज पर सवार है और डूबने का खतरा होने के बावजूद उसे भॅवर से बाहर लाने की कोशिष कर रहे है। दिग्विजय सिंह जैसे लोग कोई नया काम नही कर रहे। वे वही काम कर रहे है जो एक बेटा कमजोर और वृद्ध माॅ को बचाने के लिए करता है। यह उनका धर्म है। धार्मिक ग्रन्थों में धर्म के दस लक्षण बताये गये है- ब्रह्मचर्य, सत्य, तप, दान, संयम, क्षमा, शौच, अहिंसा, शांति और अस्तेय। ये सब गुण धारण करने पर व्यक्ति व्यक्तिगत तौर पर धार्मिक माना जाता है किन्तु धर्म सिर्फ व्यक्ति तक सीमित नही है। वह हर उस समूह या संस्था पर भी वैसे ही लागू होता है जैसे व्यक्ति पर। इसलिए कहा जा सकता है कि जैसे धर्म को क्षति पहुॅचाने वाले व्यक्ति को क्षति होती है उसी प्रकार धर्म को क्षति पहुॅचाने वाले समूह को भी क्षति उठानी पड़ती है। जो धर्म की रक्षा करता है, धर्म उसकी रक्षा करता है।
कोई राजनीतिक दल या राजनेता जब राजनीतिक ब्रह्मचर्य को धारण करता है अर्थात वह अपनी विचारधारा के साथ न तो व्याभिचार नही होेने देता है और न व्याभिचार करता है यानी अपनी विचारधारा में विरोधी विचारधारा का सम्मिश्रण नही देता, तो वह दल या राजनेता धर्म के प्रथम लक्षण को धारण करता है। धर्म का दूसरा लक्षण सत्य है। जो अपनी विचारधारा के अनुसार ही आचरण करता है अर्थात विचारधारा से बाहर जाकर व्यक्तिगत लोभ या भय के कारण समझौता नही करता वह सत्य का अनुसरण करके धर्म के दूसरे लक्षण को धारण करता है। धर्म का तीसरा लक्षण तप है, अर्थात सहन करना। राजनीति में सत्ता आती जाती रहती है। कई बार जब कोई राजनीतिक दल सत्ता में लंबे समय तक रहता है तो वह विरोधी विचारधारा को सहन नही करता और उसे या तो कुचल देता है या उसकी निरंतर आलोचना करता है। यदि वह सत्ता से बाहर है तो भी वह सत्ताधारी दल की निरंतर बुराई करके अपने तप को खो देता है। लेकिन जो दल विरोधी विचारधारा को धैर्यपूर्वक सहन करता हुआ प्रतिकार के लिए उचित अवसर की प्रतीक्षा करता है वह धर्म के तीसरे लक्षण को धारण कर लेता है।
धर्म का चौथा लक्षण दान है जो राजनीतिक रूप से देखा जाये तो सेवादान ही कहा जा सकता है। सत्ता को गौण मानते हुये सत्ता में रहकर या सत्ता से बाहर रहकर भी जो राजनीतिक दल या राजनेता जनता की निरंतर सेवा करता रहता है वह धर्म के चौथे लक्षण को धारण करता है। संयम को धर्म का पाॅचवाॅ लक्षण कहा गया है। राजनीति में विरोधियों को उकसाना एक सामान्य बात है। जो दल या राजनेता संयम को धारण करता है वह किसी के उकसाने पर अपना संयम नही खोता और उस पर त्वरित प्रतिक्रिया भी नही देता है। वह अपने विरोधियों को बौना कर देता है। धर्म के छठे लक्षण क्षमा का राजनीति में महत्वपूर्ण स्थान है। किसी भी राजनीतिक दल में क्षमा का भाव उसके नेताओं में उत्पन्न क्षमा के भाव पर निर्भर करता है। जब संगठन बड़ा होता है तो उसमें विरोधाभास पैदा होने लगते है और अपने ही लोग जो उस संगठन को अपने खून पसीने से सींचते है, वे गलतियाॅ कर बैठते है। जिस राजनीतिक दल में क्षमा का भाव विकसित होता है उसके सदस्य क्षमा पाकर आत्मअवलोकन करते है और उस दल या राजनेता के प्रति पहले से अधिक समर्पित होकर काम करते है। उसके सभी संशय दूर हो जाते है। जो संशय रहित है, उसे सिद्धि प्राप्त होती ही है।
धर्म का सातवाॅ लक्षण शौच अर्थात शुचिता है जिसका अर्थ है पवित्रता। यह सिर्फ बाहरी पवित्रता नही बल्कि अंदर की पवित्रता भी है और इसे आचरण में लाये बगैर न तो कोई व्यक्ति कभी समृद्धि और शांति को प्राप्त कर सकता है और न ही कोई राजनीतिक विचारधारा किसी लक्ष्य को हासिल कर सकती है। व्यक्ति में शुचिता का संचरण नीचे से ऊपर की ओर होता है यानी वह पैरों से शुद्ध होकर पूरे शरीर की शुद्धता के बाद मन की शुद्धता पर जाता है जबकि राजनीति में शुचिता का संचरण ऊपर से नीचे की ओर होता है। शीर्ष नैतृत्व में यदि पवित्रता दिखाई दे तो नीचे की अपवित्र श्रंखला पर भी उसका धीरे-धीरे प्रभाव पड़ने लगता है और समूचा संगठन पवित्रता की ओर उन्मुख होने लगता है इसलिए राजनीति में शीर्ष नैतृत्व की पवित्रता ही अत्यंत महत्वपूर्ण है।
धर्म का आठवाॅ लक्षण अहिंसा है। व्यक्ति के तौर पर यह मन, वचन और कर्म से किसी को चोंट नही पहुॅचाने का उपक्रम है जबकि संगठन के तौर पर देखा जाये तो यह विचारधारा को कोई चोंट नहीं पहुॅचाने की बात है। जब कोई भी राजनीतिक दल या राजनेता अपनी विचारधारा की मन, वचन और कर्म से हिंसा नही करता तो वह धर्म के आठवें लक्षण को धारण करता है।
शांति धर्म का नवाॅ लक्षण है। व्यक्ति के तौर पर देखा जाये तो शांत व्यक्ति ही जीवन के सभी पहलुओं पर गहराई से विचार कर सकता है। एक शांत मस्तिष्क में ही ऊर्जावान विचार पैदा होते है और उसमें प्रचण्ड पुरूषार्थ करने की प्रेरणा आती है। उसी प्रेरणा के बल पर व्यक्ति जीवन में बड़ी से बड़ी सफलता अर्जित कर लेता है। यही बात किसी भी राजनीतिक दल या राजनेता की सफलता पर भी लागू होती है। जो दल कठिनाइयों से विचलित नही होता, सत्ता हासिल करने पर सत्ता के मद में बौराता नही है और जो सत्ता से दूर रहने पर सदैव सम भाव में रहकर अपनी राजनीतिक विचारधारा को पोषित करने के लिये नये नये उपाय और योजनाएं बनाता रहता है वह धर्म के नवें लक्षण को धारण करने के कारण समृद्धि, सत्ता और वैभव को प्राप्त करता है।
अस्तेय को धर्म का दसवाॅ लक्षण कहा गया है। अस्तेय का अर्थ होता है चोरी नही करना अर्थात दूसरों का हक नही छीनना। व्यक्तिगत तौर पर यह एक सामान्य गुण प्रतीत होता है लेकिन संगठन के तौर पर जब हम अस्तेय की बात करते है तो इसके अर्थ व्यापक हो जाते है। यहाॅ अस्तेय से आशय प्रत्येक कार्यकर्ता को उसका हक देने के संदर्भ में लिया जाना चाहिए। राजनीति में अक्सर यह होता है कि कार्यकर्ताओं के सहयोग से सत्ता प्राप्त कर लेने के बाद राजनेता उनके संघर्ष को भूल जाते है। परिणामस्वरूप अपने संघर्ष का प्रतिफल चाहने वाले कार्यकर्ता अपनी उपेक्षा और अपमान को नही सह पाते और अपनी ही विचारधारा और नेताओं से बगावत कर देते है। धर्म को समझने वाला संगठन या राजनेता अपने निर्माण में सहायक लोगों और कार्यकर्ताओं की कभी उपेक्षा नही करता और उन्हें समय समय पर उनके हक और अधिकार देकर धर्म के दसवें लक्षण अस्तेय का पालन करता हुआ सफलता अर्जित करता है।
राजनीति का धर्म इन्हीं दस लक्षणों से मिलकर निभाया जाना चाहिए। अपनी विचारधारा के पोषण के लिये सदैव लड़ते रहना धर्म का एक प्रधान अंग है। ‘धर्म’ का पालन करने से ’अर्थ’ की अर्थात सफलता की प्राप्ति होती है और ‘अर्थ’ से ’काम’ अर्थात कामनाओं की पूर्ति होती है। राजनीति में कामनाओं की पूर्ति तभी मानी जाती है जब सत्ता प्राप्त हो क्योंकि सत्ता से समस्त भोग प्राप्त होते है। लेकिन यहाॅ याद रखने वाली बात यह है कि धर्म से अर्थ और अर्थ से काम की प्राप्ति होती है किन्तु काम से किसी की प्राप्ति नही होती बल्कि काम अर्थात सुख सुविधाओं और विलासिताओं में फॅस जाने से धर्म यानी विचारधारा का नाश हो जाता है। गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते है--"धर्मो रक्षति रक्षितः।" अर्थात- तुम धर्म की रक्षा करो, धर्म तुम्हारी रक्षा करेगा। राजनीति में विचारधारा की रक्षा ही धर्म की रक्षा है।
कांग्रेस के वरिष्ठ नेता श्री दिग्विजय सिंह धर्म के उक्त लक्षणों की व्यक्तिगत और राजनीतिक दोनों ही कसौटियों पर खरे उतरते है और इसीलिए वे सत्ता में रहें या सत्ता से बाहर, सदैव प्रासंगिक है। उनके 77 वें जन्मदिन पर  उनके दीर्घ और यशस्वी जीवन के लिए हार्दिक शुभकामनाएं।

( लेखक ने श्री दिग्विजय सिंह के साथ मां नर्मदा की पदयात्रा की है । नर्मदा परिक्रमा के पथिक रहे हैं। उनसे मोबाइल नंबर +91 98260 47546 पर संपर्क कर सकते हैं। )

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