झारखंडी लोकगीतों में धरती की पूजा और श्रम से निकला संगीत 

       ( एम . अखलाक )

झारखंड में ग्रामीण इलाकों में सुबह की पहली किरण जब महुआ के पत्तों पर थिरकती है, तब जीवन की धड़कनें भी जाग उठती हैं। 

पर्वत, जंगल, नदियाँ और पहाड़ — सब मिलकर जैसे एक अदृश्य बाँसुरी की धुन छेड़ देते हैं। 

इस सुरम्य धरती पर श्रम ही पूजा है, और इस पूजा का आरती-पत्र है लोकगीत।

ये लोकगीत केवल स्वर नहीं हैं; ये पीढ़ियों के संघर्ष, धैर्य और परिश्रम की सुगंध लिए हुए हैं। मिट्टी की गंध से उठते इन गीतों में पसीने की बूँदों का सौंदर्य है और थकन में भी नृत्य करती आत्मा की मुस्कान है।

धरती की गोद में गूंजते श्रम के गीत


झारखंड के गाँवों में जब किसान सुबह हल लेकर खेत की ओर बढ़ता है, तो धरती जैसे माँ बनकर उसे पुकारती है। बीज बोने की प्रक्रिया हो या निराई-गुड़ाई, गीत हर पल का साथी बनते हैं।

“हल जोते पिया धान के खेत में,

धरती मुस्काए पायल की रुनझुन में।

आकाश से उतरती बूंदें भी,

सुनती हैं हमारे श्रमगीत को।”

इन गीतों में श्रम की थकावट नहीं, बल्कि धरती के साथ एक आत्मीय संवाद है — जहाँ मनुष्य और प्रकृति सहचर बनकर जीवन रचते हैं।

वनों की गहराइयों में लयबद्ध जीवन

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झारखंड के घने जंगलों में जब महुआ के फूल टपकते हैं, तब वहाँ गीतों की बयार बहने लगती है। महिलाएँ टोकरी लिए महुआ बीनने निकलती हैं और साथ में गुनगुनाती हैं जीवन की मधुर गाथाएँ।

“महुआ के नीचे बैठें हम बहिनिया,

झूमे पत्ते, गाए डाली।

धरती के आँचल से गिरती अमृत बूंदें,

हम बीनते हैं जीवन की थाली।”

यहाँ वन केवल जीविका का साधन नहीं, बल्कि परिवार के बुजुर्गों-सा संरक्षक है, जो हर मौसम में अपने श्रमशील पुत्रों को पालता है।

खदानों की अंधेरी गहराइयों में भी गीत हैं

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जब सूरज डूब जाता है और धरती के गर्भ में उतरते हैं कोयले के मजदूर, तब भी उनके साथ उनके लोकगीत होते हैं। अंधकार की गोद में बैठकर वे आशा के दीप जलाते हैं।

“कोयले की सुरंगों में उतरते कदम,

अंधेरों में भी हैं सूरज के सपने।

पसीने की हर बूँद से फूटती है रौशनी,

जीवन की रोटी पकती है श्रम की आँच पर।”

इन गीतों में पीड़ा की कराह नहीं, बल्कि साहस की हुंकार है — जैसे हर थकावट को गीतों ने सँभाल रखा हो।

पर्वों में खिलते श्रम के फूल

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झारखंड के पर्व जैसे — करम, सरहुल, सोहराय — केवल उत्सव नहीं हैं, वे श्रम के बाद मिली संतुष्टि के मंगल-गीत हैं। माँदर, ढोल, नगाड़ा, बाँसुरी की थाप पर थिरकते कदम जीवन के संघर्ष को उल्लास में बदल देते हैं।

“करम की डाली झुकी है पिया,

हमारे हाथों की मेहनत रंग लाई।

धरती हँसी, अम्बर झूमा,

पसीने से उपजा सोना घर आई।”

यहाँ हर पर्व श्रम की जीत का उत्सव है — जहाँ खेत की हर बालियों में गीत की गूंज सुनाई देती है।

स्त्रियों के गीतों में श्रम की पूजा

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झारखंडी लोकगीतों में स्त्रियाँ नायिका हैं। वे खेतों में निराई करतीं, जंगल में लकड़ी बीनतीं, घर के चौके में रोटियाँ सेंकतीं — हर क्षण को गीतमय बनाती हैं।

“सिर पर टोकरी, हाथों में बच्चा,

फिर भी सुर बहता जाता है।

मेहनत की हर लय में छुपा है,

उसका जीवन, उसका गान।”

स्त्रियों के ये श्रमगीत उनके धैर्य, त्याग और शक्ति के जीवंत प्रमाण हैं।

बदलती दुनिया में भी जीवित लोकगीत

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समय बदल गया है। अब गाँव से लोग शहरों की ओर बढ़ चले हैं। मगर झारखंडी लोकगीत उनकी थैली में बँधकर चलते हैं। मजदूरी करने वाला प्रवासी भी शाम को चाय की दुकान पर अपने गाँव के गीत गुनगुनाता है। रेडियो, टीवी और मंचों पर इन गीतों की मिठास सुनाई देती है। नए साजों में भी इन गीतों की आत्मा वही पुरानी, पवित्र और मिट्टी की गंध से भरी रहती है।

श्रम का यह महागान — एक जीवन दर्शन

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झारखंडी लोकगीत हमें सिखाते हैं कि श्रम केवल शरीर का श्रम नहीं होता — वह आत्मा का परिश्रम है। जहाँ पसीना तपस्या बन जाता है, और कष्ट संगीत। यहाँ परिश्रम बोझ नहीं, प्रसाद है। जहाँ हर कठिनाई के पार एक गीत गूंजता है — जो जीवन के सबसे कठिन क्षणों को भी मधुर बना देता है।

“श्रम है तो जीवन है,

गीत है तो जीवन मधुर है।

पसीना गिरा है धरती पर,

फूले हैं गीतों के पुष्प।”

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और लोक संस्कृति के अध्येता हैं ।

 संपर्क: gaonjawar@gmail.com

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