(एम . अखलाक )
प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर झारखंड राज्य की धरती सिर्फ खनिजों और वनों की नहीं, बल्कि एक जीवंत सांस्कृतिक चेतना की भी भूमि है।
यहाँ की लोक परंपराएँ – विशेषकर लोक गीत – केवल सांगीतिक अभिव्यक्तियाँ नहीं, बल्कि संघर्ष, प्रतिरोध और सामाजिक न्याय की गूंज हैं। जब लिखित इतिहास चुप रहा, तब इन गीतों ने जन आंदोलनों की आवाज़ उठाई। जंगल-जमीन, अस्मिता और अधिकारों की लड़ाइयों को इन गीतों ने एक भावनात्मक आधार दिया, जो आज भी समाज की नसों में प्रवाहित हो रहा है।

झारखंड के संथाली, मुंडारी, कुड़ुख, नागपुरी, पंच-पढ़गान, करमा जैसे गीत आदिवासी समाज की आत्मा हैं। ये गीत जीवन के हर रंग – उत्सव, प्रेम, शोक, पूजा – के साथ-साथ सामाजिक विषमता और दमन के विरुद्ध आवाज़ भी उठाते हैं। शोषण के खिलाफ उठते स्वर जब सुरों में ढलते हैं, तो वे केवल गीत नहीं रहते – वे इतिहास बन जाते हैं।
सिद्धो-कान्हू की ‘हूल’ आज भी जीवित है
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1855 में अंग्रेजों और महाजनों के खिलाफ संथालों के ‘हूल विद्रोह’ का नेतृत्व सिद्धो और कान्हू ने किया था। यह आंदोलन आज भी संथाली लोकगीतों में जीवित है। गीतों में वे ‘वीर योद्धा’ नहीं, बल्कि ‘धरती के बेटे’ हैं।
“सिद्धो-कान्हू ना मरलो, ओ रे अंग्रेजी गोली से,
हूल के अगिना अबहूँ जरए, असमान हावा में।”
यह पंक्ति दर्शाती है कि यह संघर्ष एक घटना नहीं, बल्कि सतत चेतना है, जो हर पीढ़ी को प्रेरणा देती है।
गीतों में धरती आबा बिरसा मुंडा की छवि
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बिरसा मुंडा के नेतृत्व में हुआ ‘उलगुलान’ (1899-1900) केवल सैन्य विद्रोह नहीं था, बल्कि एक सांस्कृतिक जागरण भी था। उनके विचार और व्यक्तित्व ने लोकगीतों को एक नई दिशा दी।
“धरती आबा आयेलो रे, उजियारी भेलो गाँव,
साहेब-ज़मींदार काँपे, बिरसा के नाम सुनके रे।”
बिरसा लोक गीतों में नायक ही नहीं, ईश्वर तुल्य स्वरूप हैं – जो सिर्फ अतीत नहीं, वर्तमान के आंदोलनकारियों के भी प्रेरणा स्रोत हैं।
आज के विस्थापन में भी गीतों की हुंकार
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वर्तमान में जब झारखंड के कई आदिवासी इलाके खनन, बाँध निर्माण और औद्योगीकरण के नाम पर उजड़ रहे हैं, तब ये गीत फिर एक बार प्रतिरोध का माध्यम बन रहे हैं। विस्थापन विरोधी आंदोलनों में गाए जाने वाले गीत लोगों के दर्द और क्रोध को शब्द देते हैं।
“खनिजवा तोर भुखल पेट, हमार घरवा के चिता बनैलो,
कहाँ जइब रे धरती माँ, तोरे कोरा में बाँचल छी।”
इस गीत में आधुनिक विकास की त्रासदी और आदिवासी अस्मिता की पीड़ा स्पष्ट झलकती है।
जल-जंगल-जमीन की लड़ाई में गीतों की भूमिका
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करमा, जदुर और फगुआ जैसे पर्वों में गाए जाने वाले गीतों में जल, जंगल और जमीन को माँ और बाबा का दर्जा प्राप्त है। ये सिर्फ पर्यावरण नहीं, अस्तित्व से जुड़े प्रतीक हैं।
“जंगल माँ, पानी बाबा, धरती अम्मा के पुकार,
हक छी हमर, छी हमरे अधिकार!”
इस तरह के गीतों ने आदिवासी समाज को पर्यावरण और आत्म-निर्भरता के लिए संगठित किया है।
नारी स्वर : पीड़ा, प्रतिरोध और पुनर्निर्माण
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झारखंडी लोकगीतों में महिलाओं की आवाज़ भी मुखर रूप से सामने आती है। विस्थापन, पुरुषों का पलायन, भूमि अधिग्रहण जैसी समस्याओं से जूझती महिलाओं की पीड़ा इन गीतों में झलकती है।
“पिया नगर गेलो कमाए, हम रहली अकेल रे,
जमीनवा गेलो अधिग्रहण में, अब का करब रे।”
ये गीत केवल दुःख की अभिव्यक्ति नहीं हैं, बल्कि स्त्री चेतना के उभार का प्रमाण भी हैं।
लोकगीत: मौखिक परंपरा से प्रतिरोध की परंपरा तक
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लोकगीतों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि ये मौखिक परंपरा में चलते हुए भी अपनी प्रासंगिकता नहीं खोते। ये गीत न किसी पुस्तक में बंद हैं, न किसी पाठ्यक्रम का हिस्सा – फिर भी ये पीढ़ी दर पीढ़ी चेतना को स्थानांतरित करते हैं। इन गीतों में इतिहास की जीवंतता है। संघर्षों की स्वाभाविकता है और भविष्य के लिए चेतावनी भी।
झारखंडी लोकगीत आदिवासी समाज की आत्मा हैं। वे इतिहास के मौन को स्वर देते हैं, शोषण के खिलाफ क्रांति का बिगुल फूँकते हैं और आज के संघर्षों को ताक़त प्रदान करते हैं। लोकगीतों की यही भूमिका उन्हें ‘सांस्कृतिक हथियार’ बनाती है – जो तलवार से नहीं, स्वर से लड़ते हैं। ऐसे समय में जब आदिवासी जीवनशैली और अधिकारों पर निरंतर हमला हो रहा है, इन गीतों को समझना और संरक्षित करना न केवल सांस्कृतिक जिम्मेदारी है, बल्कि सामाजिक न्याय की ओर एक आवश्यक कदम भी।
( लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं लोक संस्कृति के अध्येता हैं।
संपर्क: gaonjawar@gmail.com )