कविता में वीरांगना दुर्गावती की शौर्य गाथा 

उमेश जबलपुरी 

कालिंजर की कंचन कली थी,

गोंडवाना की रानी थी।

दलपत की वह जीवनसंगिनी,

पर खुद में अग्निवर्षा थी।

घुड़सवारी, धनुष, कटारी,

हर कौशल में दक्ष बनी।

दुर्गाष्टमी को जन्मी थी जो,

रणचंडी बन लक्ष्मी जनी।

मदनमहल की माटी बोली,

यह रानी कुछ न्यारी है।

पल में कोमल, क्षण में क्रुद्ध,

जीवन उसकी तलवारी है।

राजतिलक से पूर्व ही उसने,

रण को रत्न बना डाला।

सोलह वसंतों तक सजी,

जनगण की दीपमाला।

जब आसफ खाँ की चालें बढ़ीं,

अकबर ने फंदा डाला।

तोपें गरजीं, युद्ध छिड़ा,

रानी ने नहीं मुंह मोड़ा।

तीन बार परास्त हुआ था,

दिल्ली का बलशाली खाँ।

चौथी बार घिरी जब रानी,

काँप उठा सारा जहाँ।

घाव लगे, आँख बुझी,

बाँह कट गई रण में।

पर हार न मानी—स्वाभिमान

था सजीव उस तन में।

कटार उठाई, स्वयं ही

अपना अंत रचा डाला।

हँसकर मौत को वरण किया,

मगर मुग़ल को ना पाला।

नरई नाले की मिट्टी आज भी

उस रक्त कथा को गाती है।

रानी दुर्गावती अमर कथा में,

हर युग की बेटी पाती है।

नमन है उस नारिशक्ति को

जिसने तलवार थामी थी,

राजा नहीं, रानी नहीं—

वह जनता की माँ भवानी थी। 

( इस कविता के रचनाकार सेवानिवृत्त न्यायाधीश हैं ।)

Related Posts

आपातकाल में विचार, कलम और विरोध को कालकोठरी में डाला गया : शाह 

24 जून 1564 : रानी दुर्गावती का बलिदान दिवस जिनकी रणनीति से मारा गया शेरशाहसूरी 

रमेश शर्मा रानी दुर्गावती भारतीय इतिहास की ऐसी वीराँगना हैं जिनके शौर्य, दूरदर्शिता और रणनीति का प्रभाव कालिंजर से गौंडवाना तक है। लेकिन इतिहास में उन्हें उतना स्थान नहीं मिला…

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *