
रमेश शर्मा
रानी दुर्गावती भारतीय इतिहास की ऐसी वीराँगना हैं जिनके शौर्य, दूरदर्शिता और रणनीति का प्रभाव कालिंजर से गौंडवाना तक है। लेकिन इतिहास में उन्हें उतना स्थान नहीं मिला जितना उनका योगदान भारतीय संस्कृति की रक्षा में है। उन्हें आमने सामने की वीरता में कोई हरा नहीं पाया। अंततः मुगल सेनापति आसफ खाँ की कुटिल योजना से उनका बलिदान हुआ।
रानी दुर्गावती का जन्म 5 अक्टूबर 1524 को हुआ था। उनके पिता राजा कीर्तिवर्धन सिंह इतिहास प्रसिद्ध कालिंजर के राजा थे। यह राजघराना चंदेल राजवंश था। उनकी माता चित्तौड़ राजघराने की राजकुमारी और सुप्रसिद्ध यौद्धा राणा सांगा की बहन थीं। राणा सांगा का खानवा के मैदान में बाबर के साथ हुये युद्ध में भी राजा कीर्तिवर्धन की भूमिका महत्वपूर्ण थी। इसीलिए खानवा युद्ध के बाद बाबर ने कालिंजर पर आक्रमण किया था। लेकिन जीत नहीं पाया था।
कालिंजर यह किला उत्तर प्रदेश के बांदा जिले के अंतर्गत आता है । यह राज्य और यह किला भारत के इतिहास के पन्नो पर हर युग की घटनाओं से जुड़ा है। यह कालिंजर का आकर्षण ही है कि लगभग प्रत्येक आक्रांता ने हमला बोला । मेहमूद गजनवी, अलाउद्दीन खिलजी, और शेरशाह सूरी ने भी कालिंजर पर हमला बोला था । आक्रांताओं ने कालिंजर क्षेत्र में हत्याएँ लूट और आतंक तो बहुत किया पर किला अजेय रहा। ऐसी वीरभूमि और साँस्कृतिक गौरव के लिये अपना बलिदान देने की परंपरा में जन्मी थीं रानी दुर्गावती। उनके पिता राजा कीर्तिवर्धन का नाम बचपन में पृथ्वीदेव सिंह था जो कीर्तिवर्धन के नाम से गद्दी पर बैठे । इसलिए इतिहास की पुस्तकों में दोनों नाम मिलते हैं। जिस तिथि को उनका जन्म हुआ वह दुर्गाष्टमी का दिन था। माता देवीजी की भक्त थीं इसलिए उनका नाम दुर्गावती रखा गया । राजा कीर्तिवर्धन ने एक से अधिक विवाह किये थे। परिवार में और भी बेटियाँ थीं। दुर्गावती अपनी माता की इकलौती संतान थीं । इसलिये उनका लालन पालन बहुत लाड़ के साथ हुआ । वे बचपन से ही बहुत कुशाग्र बुद्धि, ऊर्जावान और साहसी थीं। जिस प्रकार कालिंजर ने आक्रमण झेले थे । इस कारण राजपरिवार की सभी महिलाओं और राजकुमारियों को भी आत्मरक्षा के लिये शस्त्र संचालन सिखाया जाता था। राजकुमारी दुर्गावती को शास्त्र और शस्त्र दोनों की शिक्षा बचपन से ही दी गयी। वनक्षेत्र में भी अपनी सखियों के साथ निर्भय होकर करती थीं। बचपन से ही उनके साथ उनकी सखी सहेलियों की टोली भी वीरांगनाओं की थी । कालिंजर पर अक्सर हमले होते थे इस कारण वहां के नागरिकों में भी युद्ध कला के प्रशिक्षण का चलन हो गया था । इसी संघर्ष मय वातावरण में दुर्गावती बड़ी हुईं । वे हाथी पर बैठकर तीर कमान के युद्ध में भी पारंगत थीं। उनके तीर का निशाना अचूक था । वीरांगना दुर्गावती कितनी साहसी थीं इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि वे कृपाण से चीते का शिकार कर लेतीं थीं। उनकी माता ने उन्हे इतिहास और पूर्वजों की वीरोचित परंपरा की कहानियाँ सुनाकर बढ़ा किया था। 1544 में उनका विवाह गढ़ मंडला के शासक राजा संग्राम शाह के सबसे बड़े पुत्र दलपत शाह हे हुआ। गढ़ मंडला के शासक गौंड माने जाते थे और कालिंजर के चंदेल राजा सूर्यवंशी क्षत्रिय थे । यदि सूर्यवंशी राजा अपनी पुत्री का गौंडवाना में करते हैं तो इससे संकेत है कि भारत में नगरवासी और वनवासी का कोई भेद नहीं था।
विवाह के एक वर्ष पश्चात रानी ने पुत्र को जन्म दिया। जिसका नाम वीर नारायण रखा। रानी ने जब पुत्र को जन्म दिया तब वे मायके कालिंजर आयीं हुईं थीं। इन्हीं दिनों शेरशाह सूरी का आक्रमण कालिंजर पर हुआ। राजा कीर्तिवर्धन सिंह ने वीरता से युद्ध लड़ा लेकिन खानवा के युद्ध में भाग लेने और फिर बाबर के कालिंजर पर हमले से शक्ति क्षीण हो गई थी। राजा घायल हुये और किले के द्वार बंद करलिये गये। शेरशाह ने किले पर घेरा मजबूत किया और समर्पण की शर्त रखी। समर्पण में रनिवास और राजकोष के समर्पण की भी शर्त थी। राजा ने समर्पण से इंकार कर दिया। घेरा लंबा चला। शेरशाह की सेना में बेचैनी तो हुई पर वह खाली हाथ नहीं लौटना चाहता था। रानी दुर्गावती की एक बहन कमलावती भी थीं। उनके सौन्दर्य और वीरता के भी चर्चे थे। रानी दुर्गावती ने अपने पिता की ओर से संदेश भेजा कि यदि वे राजकुमारी से विधिवत विवाह कर लें तो आधीनता स्वीकार कर ली जायेगी और यह किला भी समर्पित कर दिया जायेगा। शेरशाह ने प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। योजना पूर्वक सगुन भेजा गया और किले में विवाहोत्सव की गीत संगीत होने लगे। तीसरे दिन शेरशाह को विवाह के लिये किले में आमंत्रित किया गया। शेरशाह किले के मुख्य द्वार की ओर बढ़ा। जैसे ही वह समीप आया किले की तोप चल पड़ी और शेरशाह मारा गया। भारतीय इतिहास के ऐसे गौरव प्रसंगों पर परदा डालने वाले कुछ इतिहासकार यह तो स्वीकार करते हैं कि शेरशाह की मौत किले से आने वाले तोप के गोले से हुई। लेकिन वे कुतर्क देते हैं कि वह तोप का गोला शेरशाह की तोप का ही था जो किले की दीवार से टकराकर लौट आया था। कोई पूछे इन इतिहासकारों से कि क्या तोप के गोले में हवा भरी थी जो दीवार से टकरा लौट आया।
कुछ समय रूककर रानी दुर्गावती गौंडवाना लौट आईं। इस घटना के बाद उनकी चर्चा पूरे भारत में हुई। लेकिन रानी दुर्गावती का दाम्पत्य जीवन अधिक न चल सका। 1550 में राजा दौलत शाह की मृत्यु हो गई। तब पुत्र वीर नारायण की आयु मात्र पाँच वर्ष थी। रानी ने अल्पवयस्क वीर नारायण को गद्दी पर बिठाकर राजकाज चलाना आरंभ किया। उन्होंने अपना नौ सदस्यीय मंत्री परिषद गठित की। इसमें कोष, सेना, अंतरिम व्यवस्था, शाँति सुरक्षा आदि के प्रमुख बनाये। मंत्री परिषद के प्रमुख को दीवान पद दिया। इसके साथ रानी दुर्गावती ने अपने पूरे राज्य में कृषि और वनोपज के व्यापार को बढ़ावा दिया। राज्य की आय बढ़ी तो नये निर्माण कार्य भी हुये। उन्होंने अपनी राजधानी सिंगोरगढ़ से चौरागढ़ स्थानांतरित की । चौरागढ़ सुरम्य सतपुड़ा पर्वतीय श्रृंखला पर किला है । सामरिक दृष्टि से यह किला महत्वपूर्ण था । तब गौंडवाना साम्राज्य मंडला, नागपुर से लेकर नर्मदा पट्टी तक फैला था । गौंडवाना राज्य के अंतर्गत कुल 28 किले आते थे । राज्य निरंतर प्रगति की ओर बढ़ रहा था। रानी दुर्गावती प्रजा वत्सल वीरांगना थीं । जबलपुर का आधारताल, चेरी ताल और रानीताल का निर्माण कार्य उन्हीं के कार्यकाल में हुआ । उनपर माँडू के सुल्तान बाज बहादुर ने तीन बार आक्रमण किया और तीनों बार पराजित होकर वापस लौटा। तीसरी बार तो उसे भारी नुकसान हुआ और मुश्किल से प्राण बचाकर भागा था। रानी वीरांगना थीं। रानी हाथी पर बैठकर युद्ध करतीं थीं।
गौंडवाना राज्य की बढ़ती समृद्धि और ख्याति ही उसपर आक्रमण का कारण बनी । यदि मालवा के सुल्तानों से कुछ राहत मिली तो मुगल सेना ने भारी सेना और तोपखाने से आक्रमण बोला। जो मुगलसेना गौंडवाना पर आक्रमण करने आयी उसका सेनापति आसफ खाँ था। उसने पहले इलाहाबाद में अपना कैंप लगाकर आसपास लूट की लोगों आधीन बनाया। रीवा राज्य को भी समर्पण करने विवश किया । समर्पण का संदेश रानी को भी भेजा गया। रानी ने इंकार कर दिया । मुगल सेना ने जोरदार आक्रमण किया लेकिन पराजित हुआ और आसफ खाँ भागकर वापस इलाहाबाद पहुँचा । उसने अतिरिक्त तोपखाना मंगाया, अतिरिक्तसेना भी बुलाई । और दोबारा हमला बोला। उसने लगातार चार आक्रमण किये। हर आक्रमण में रानी से पराजित हुआ। इन आक्रमणों में जीत के बाद भी उनकी शक्ति क्षीण हुई तो उन्होंने छापामार युद्ध की रणनीति अपनाई। किन्तु आसफ खाँ ने इस बार युद्ध के साथ एक कुटिल योजना पर भी काम किया। उसने अपना कैंप नरई नाले पर लगाया था। आसफ खाँ ने रानी के पास स्थाई समझौते का संदेश भेजा। और बातचीत के लिये अपने कैंप पर आमंत्रित किया। रानी सतर्क तो थीं पर उन्होंने समझौता वार्ता के लिये नाले तक जाना स्वीकार कर लिया। यह नाला गौर और नर्मदा नदी के बीच में था। आसफ खाँ ने अपनी रणनीति के अंतर्गत रानी को नर्मदा के इस पार आने दिया। घाट पर उनके स्वागत की व्यवस्था भी थी। लेकिन मुगल सेना के तीरंदाज पेड़ों पर छुपा दिया था। रानी अपने अंग रक्षकों की टोली के साथ आगे बढ़ीं तो तीरों से हमला हो गया। कुछ अंग रक्षक घायल हुये और एक तीर रानी को भी लगा। वे घायल हुईं । बेटा वीर नारायण भी उनके साथ था। रानी ने समर्पण करने की बजाय युद्ध करना बेहतर समझा । मुगल सेना उन्हें जीवित पकड़ना चाहती थी । इसलिये उनपर तीरों से हमला किया जा रहा था । जबकि अंग रक्षकों पर गोली और तोपखाना भी आग उगल रहा था । फिर भी रानी ने हार नहीं मानी तभी एक तीर उनके कान के पास और एक तीर उनकी गर्दन में लगा । वे बेहोश होने लगीं । महावत ने उन्हें कहीं छिपकर निकलने की सलाह दी । पर रानी को शत्रु की रणनीति का अनुमान हो गया था । वहाँ से सुरक्षित निकलना सरल न था । उनके पास पुनः समर्पण का संदेश आया । पर उन्होंने पराधीन जीवन से बेहतर स्वाभिमान से मर जाना बेहतर समझा और कटार निकालकर स्वयं पर वार कर लिया । यह 24 जून 1564 का दिन था जब वीरांगना रानी दुर्गावती ने कटार निकालकर स्वयं का बलिदान दे दिया। उनके बलिदान के बाद मुगल सेना राज्य घुसी लूट और हत्याओं के साथ महिलाओं के साथ जो व्यवहार हुआ । वह सब इतिहास के पन्नों में दर्ज है ।
( लेखक धर्म, संस्कृति, इतिहास के मर्मज्ञ और वरिष्ठ पत्रकार हैं।)