स्वतन्त्रता दिवस पर प्रासंगिक सवाल

( राकेश कुमार वर्मा )
स्वतन्त्रता दिवस पर्व उन गौरवशाली क्षणों की सुखद स्मृति है जिसके ‘स्व’ के राग में सामूहिकता के लय हैं ।
निश्चित ही हमारा देश विविध क्षेत्रों में आत्मनिर्भर हुआ है, जिसकी अनुभूति हम चन्द्रयान 3 सहित विविध झलकियों के अवलोकन से कर रहे हैं ।
इसका दूसरा पहलू यह है कि स्वतंत्रता के 76 वर्षों बाद हम दोहरी नागरिकता से मुक्त नहीं हो पाये हैं ।
किसी देश का राष्ट्रीय पर्व भाषणों आंकड़ो की नकल की अपेक्षा दुरूह जीवन की अनुभूतियों का पारेषण होता है।
जो तन्त्र हमारी निजता में हस्तक्षेप के बावजूद ऊँच-नीच, भेदभावपूर्ण वैमनस्यता के दुराग्रह से मुक्त नही करा सका वहॉं पात्र-अपात्र को मनमाने ढ़ंग से परिभाषित कर कान में सीसा भर देने की परंपरा अभी भी बदस्तूर जारी है।
जिस देश की राष्ट्रपति को ईश दर्शन से वंचित होना पड़ता हो, जहां छतरपुर, सीधी जैसे क्षेत्रों में निचले तबके मल-मूत्र जैसे अमानवीय कृत्य से प्रताडि़त होते हों ।
जिस देश में वात्सल्य सुख एक वर्ग के लिए पर्व हो वहीं वह दूसरे वर्ग की जीविका में बाधक (गर्भाशय) निकलवाने की विवशता हों ।
जिस मार्ग पर चलने के लिए दोहरे टैक्स की मार से गुजरने के बावजूद किसी राजनीतिक प्रतिनिधि, जुलूस, अनशन के कारण उस करदाता को उस पर चलने से वंचित कर दिया जाता हो ।
जहां षडयंत्र का शिकार आम आदमी किसी आरोप में ताउम्र जेल में सड़ता है वहीं राजनीतिक संरक्षण में जघन्य अपराधी स्वतंत्र है ।
निर्भया जघन्य दुष्कर्म से यौनशोषण के प्रकारो में जहॉं आम आदमी को शिकार बनाया जाता हो वहीं कथित राजनीति के पोषण में दोषियों का स्वागत से मनोबल बढ़ाया जाता है ।
डीए, टीए, बच्चों के शिक्षावहन मातृत्व, पितृत्व, चिकित्सा जैसे विविध अवकाश से सुविधा संपन्न एक अधिकारी या प्रतिनिधि का एक लाख रुपये वेतन असंतोषरूपी हड़ताल के लिए वैध हो वहीं 300/- रुपये प्रतिदिन पारिश्रमिक पर सीवेज की गर्त में दम तोड़ते कर्मी के लिए उसका असंतोष अवैध है।
एक ओर ललित मोदी माल्या जैसे सामर्थ्य व्यवसायी अरबों का कर्ज लेकर ‘मौजई-मौजा’ का सुर अलाप रहे हैं वही ऋणबोझ के अवसाद से परिवार सहित मृत पीडि़त के घर में चोरी न रोक पाना मण्टो की ‘गुरुमुख सिंह की वसीयत’का स्मरण कराती है। निर्वस्त्र अबलाओं को सुरक्षाकर्मियों की शह पर भीड़ को परोसने के पश्चात चिकित्सालय द्वारा पीडि़तों की उपेक्षा घृतराष्ट के उस भय का हनन करती है, जिसके प्रायश्चित्त में उन्होंने पाण्डवों को खाण्डवप्रस्थ दिया था ।
शीर्ष न्यायालय के दखल के बाद इसकी प्राथमिकी में यौन उत्पीड़न की बजाय केवल लूट, शरारत और अनाधिकार प्रवेश का मामला दर्ज किया गया है ।
जिस व्यवस्था में एम्बूलेंस की अनुपलब्धता पर जरूरतमंद नागरिक दम तोड़ते हों, वहॉं सुशासन जैसे शब्द गौण हो जाते हैं ।
जिस तंत्र में पूर्वाग्रह से प्रेरित प्रतिशोध के नेतृत्व को मंडित करने के उन्माद ने समाज को चैतन्यशून्य बना दिया हो, ऐसे में सुशासन का क्या महत्व है? दरअसल इससे जुड़े संगठन इन राजनीतिज्ञों की सामंतशाही लोकेषणा को तुष्ट करने का माध्यम है ।
हमारे आराध्य , देवाधिदेव , राजाधिराज महाकाल महाराज की यात्रा में यदि किसी का तिरस्कृत आचरण असहिष्णुता का पर्याय बन जाये तो हमें भोलेनाथ का भक्त कहलाने का बिलकुल अधिकार नहीं।
वस्तुत: हमारी पूजापद्धति स्थूल से सूक्ष्म की ओर केन्द्रित है, जो उपनिषदों के आसव से विश्वबंधुत्व का बोध कराती है। इस संबंध में राजा बलि के पूर्वजन्म में शिव तिरस्कार के फलस्वरूप मिले इन्द्रासन का चिंतन करना चाहिये ।
साथ ही उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ के उस आशीर्वचन को ध्यान में रखना चाहिये जिसमें उन्होंने कहा था –‘लोकतंत्र के मंदिरों में व्यवधान और हंगामे को राजनीतिक रणनीति के तौर पर हथियार नहीं बनाया जा सकता । ।
पर्यावरण को प्रभावित करने वाले वातानुकूलित साधनो के बिना गोष्ठियां-विमर्श आयोजित कर बनाई नीतियां किस वर्ग पर लागू करने के लिए हैं ?
उस बहुसंख्यक वर्ग के लिए जो दो जून की रोटी के संघर्ष में यायावरी जीवन जीने को अभिशप्त है या उन नौकरशाह के लिए जिनकी जीवनशैली पर्यावरण के कारकों को प्रभावित किये बिना संभव नहीं है ।
किसके लिए अन्नश्री(मिलेट्स) का आग्रह है ?
जिसने हरित क्रांति के नाम पर भू-जननी की उर्वराशक्ति को नष्ट किया, या जो अभावग्रस्त पहले से ही इससे पोषण का अभ्यस्त हैं । किसके लिए नमामि गंगे और पौधरोपण का आह्वान है? जिनकी उस तक पहुंच दुर्लभ है या कथित विकास के नाम पर अंधाधुंध उत्खनन, कारखाने स्मार्ट सिटी जैसे कृत्यों की उगाही हड़पने के जिम्मेदार है?
उल्लेखनीय है वह स्वतंत्रता पश्चात औपनिवेश से मुक्ति के लिए उस रामराज्य की परिकल्पना की गई थी जहॉं आत्मसम्मान और संवेदना की सतह से उत्पन्न एक राजा किसी कार्य के बदले गरीब केवट की शर्तों पर तुष्ट होता है। यह बानगी केवल स्वतंत्रता का राजनीतिक अर्थ प्रस्तुत नहीं करता अपितु यह मानव सभ्यता में ऐसे विशिष्ट राष्ट्र की कल्पना है जहां नागरिक विधिसम्मत मर्यादा में रहकर धर्म का पालन करते हैं।
इससे एक ऐसी समग्र राज्य व्यवस्था निर्मित होती है जिससे सत्य, सोच, दया और दान परस्पर अवलंबित हो सामाजिक जीवन का उत्थान करते हैं । विश्व को श्रेष्ठतम जीवनमूल्यों के बोध के साथ नये सिरे से नई सभ्यता रचने की दृष्टि से ही हम इस लोकतांत्रिक यज्ञ में आहूतियां देते आ रहे हैं। इसलिए शासक से राजनीतिक हितों से परे ऐसे मूल्य स्थापित करने की अपेक्षा है जो सरकारी मानसिकता से प्रवृत्त लोगों को अतिक्रांत करते हुए जनगण की भावना को उत्प्रेरित करे। इसके लिए उसे मेगस्थनीज की इण्डिका, फाह्यान द्वारा हर्षवर्धन राज्यकाल के वृत्तांत, समुद्रगुप्त और स्कंदगुप्त शासन के आख्यान, ललितादित्य के महान शासन के राजतरंगिणी के आख्यान, छत्रपति शिवाजी के सुशासन स्वराज के दस्तावेजों को ध्यान में रखना होगा।
( लेखक आकाशवाणी भोपाल से संबद्ध हैं, उनसे मोबाइल नंबर +91 79996 82930 पर संपर्क किया जा सकता है)
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