देवी कामाख्या के शक्तिपीठ पर अम्बूवाची उत्सव का आनंद

( राकेश कुमार वर्मा )
सृष्टि-पोषण का मार्ग प्रशस्त करने वाली कामाख्या शक्तिपीठ पर इन दिनों अम्बुबाची उत्सव की धूम है। जिसकी गति से सृष्टि में जीवन संचार होता है, जो ब्रम्हा, विष्णु और महेश की उत्पत्ति का कारक है उस शक्ति की प्रजनन क्षमता यानि रजस्वला होने के दुर्लभ क्षण के चमत्कार का हम साक्षात्कार कर रहे हैं। 26 जून तक चलने वाले इस अनुष्ठान में सृष्टि के मूल आधार महामुद्रा(योनिकुण्ड) की आराधना की जाती है। पूर्वोत्तर का द्वार कहे जाने वाले असम राज्य के गुवाहाटी में यह स्थित है। 'असम' शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के 'असोमा' शब्द से हुई है, जिसका अर्थ ‘अनुपम’ होता है । गुवाहाटी शब्द ‘गुवा’ अर्थात सुपाड़ी और ‘हाट’ अर्थात ग्राम्य बाजार से बना है। प्राचीनकाल में इसे प्राज्ञज्योतिश्वर के नाम से जाना जाता था। कामाख्या माता के द्वारपालो के रूप में पूरब, पश्चिम, उत्तर द्वार पर गणेश और दक्षिण द्वार पर बाल हनुमानजी के दर्शन होते हैं। महाभारतकालीन पाण्डवों निर्मित बाल हनुमान मंदिर के पास ही स्थित सुदर्शनचक्र के श्रद्धापूर्ण स्पर्श मात्र से दिव्य अनुभूतियां होती हैं। नीलांचल का यह खण्ड दस महाविद्याओं शक्ति काली, तारा, षोडसी,भुवनेश्वरी, भैरवी, छिन्नमस्ता,धूमावती, बगलामुखी, मातांगी और कमला को समर्पित है। तीन भागों में विभक्त इस नीलांचल पर्वत पर स्थित भुवनेश्वरी पीठ ब्रम्ह पर्वत कहलाता है, मध्यभाग महामाया पीठ है जो शिव पर्वत कहलाता है और पश्चिम भाग विष्णु या वराह पर्वत कहलाता है। ब्रह्मपुत्र 'नद' पर अनुपम वास्तुशिल्प के लिए प्रसिद्ध भस्मांचल पहाड़ी स्थित महाभैरव उमानंद के दर्शन के बिना कामाख्या की यात्रा अधूरी है। सृष्टि के आरंभ में पुष्पबाणोंसे आहत योगिराज शिव ने कामदेव को यहीं भस्म किया था, जिसे माँ भगवती की याचना पर पुन: जीवनदान मिला था। इसीलिए यह क्षेत्र कामरूप के नाम से भी जाना जाता है।
यज्ञ के उत्कर्ष और उसके निहितार्थ में शिव को प्रवृत्त(शिव को शंकर बनाने की आंकांक्षा से हिमालय से काशी की ओर) करने के लिए सती हुई शक्ति की विरह से बावले हुए शिव उनके पार्थिव शरीर को लिए घूमते हैं। जिसके परिताप के परिष्कार में सुदर्शनधारी विष्णु सती की काया को खंड-खंड कर देते हैं जो भारतवर्ष के 51 विभिन्न भागों में गिरकर शक्तिपीठ बन गए। इनमे कामाख्या देवी के सिद्धपीठ में मनाये जाने वाला ‘अम्बु’ शब्द का अर्थ संघनित जल की वृष्टि और ‘बाची’ का तात्पर्य सृष्टि की उर्वरता से प्रेरित है। ब्रम्हाण्ड का केंद्रबिन्दु माने जाने इस शक्तिपीठ पर होने वाले इस पर्व में मां भगवती के रजस्वला होने से पूर्व गर्भगृह स्थित महामुद्रा पर सफेद वस्त्र चढ़ाये जाते हैं, जो कि रक्तवर्ण हो जाते हैं। उत्सव के चौथे दिन मंदिर के पुजारियों द्वारा ये वस्त्र प्रसाद के रूप में श्रद्धालु भक्तों में विशेष रूप से वितरित किये जाते हैं। सुबह पांच बजे शुरू होने वाली आराधना 2 घंटे चलती है। गर्भगृह के सामने 12 खंभों के बीच उत्सवमूर्ति स्थापित हैं। उत्तर में वृषवाहन, दशमुख कामेश्वर महादेव, दक्षिण में कमलासन देवी के दर्शन उपरांत महामुद्रा दर्शन होता है।
आलौकिक शक्तियों का अर्जन करने में समाधिस्थ तांत्रिक बंगलादेश, तिब्बत, अफ्रीका जैसे अनेक देशों से आकर साधना के सर्वोच्च शिखर को प्राप्त होते हैं। तिब्बत से आये विश्व के प्राचीनतम तंत्र आगम मठ(चीनाचारी) के विशिष्ट तांत्रिकों के दर्शन कर श्रद्धालु कृतकृत्य हो रहे हैं। उल्लेखनीय है कि वाममार्ग साधना के इस सर्वोच्च पीठस्थल पर गुरु मछन्दरनाथ, गोरखनाथ, लोनाचमारी, ईस्माइल, जोगी जैसे साधक भी सांवर तंत्र में अमर हो गये । यह अष्टादश महाशक्तिपीठ स्तोत्र के अन्तर्गत है जिसका आदिगुरु शंकराचार्य ने सृजन किया था। देश भर मे अनेकों सिद्ध स्थान है जहाँ माता सूक्ष्म स्वरूप मे निवास करती है । माता कामाख्या का यह मंदिर प्रमुख महाशक्तिपीठों मे सुशोभित है । इसी प्रकार हिंगलाज की भवानी, कांगड़ा की ज्वालामुखी, सहारनपुर की शाकम्भरी देवी, विन्ध्याचल की विन्ध्यावासिनी देवी,श्रीबाग(अलिबाग) की श्री पद्माक्षी रेणुका देवी आदि महान शक्तिपीठ श्रद्धालुओं के आकर्षण का केंद्र एवं तंत्र- मंत्र, योग-साधना के सिद्ध स्थान है।
`राजराजेश्वरी कामाख्या रहस्य' एवं `दस महाविद्याओं' नामक ग्रंथ के रचयिता डॉ॰ दिवाकर शर्मा ने बताया कि विश्व के तांत्रिकों, मांत्रिकों एवं सिद्ध-पुरुषों के लिये अम्बूवाची योग पर्व वस्तुत: एक वरदान है। यह सिद्ध सती तंत्र का सर्वोच्च शक्तिपीठ है। तांत्रिकों के लिए मॉं काली, त्रिपुर सुन्दरी के बाद कामाख्या देवी सिद्धियां प्रदान करने में सहायक हैं। यह सतयुग में 16 वर्ष, द्वापर में 12 वर्ष, त्रेतायुग में 7 वर्ष में एक बार जबकि कलियुग में प्रत्येक वर्ष जून माह (आषाढ़) में मनाया जाता है। इस शक्तिपीठ में कौमारी-पूजा अनुष्ठान का भी विशेष महत्व है। जीवन में तीन बार इनका दर्शन कर भक्त सांसारिक भव बंधन से मुक्त हो जाते हैं। देवी ग्रंथ कुलावर्ण तंत्र और महाभगवती पुराण में कहा गया है कि जो भी साधक इस स्वयंभू सिद्ध पीठ और ब्रह्मपुत्र नदी में गंगा जल चढ़ाएगा उसे वाजपई यज्ञ का फल मिलेगा। इस दौरान दुग्ध और आम का सेवन करने से सर्पदंश के भय से मुक्ति मिलती है। इस प्रकार यंत्र, तंत्र, योग, अध्यात्म के विविध रहस्यों को समेटे इस उत्सव का वही महत्व है जो उत्तर भारत में कुम्भ महापर्व का। काले जादू और शाप से मुक्ति के लिए यह क्षेत्र प्रसिद्ध है।
इन साधको का प्रभाव संपूर्ण भूमंडल पर महसूस किया जा सकता है। ऐसे ही देशव्यापी यात्रा के दौरान एक साधक 9 जुलाई 1929 को मध्यप्रदेश के दतिया आये और वर्ष 1935 में भगवती बगलामुखी की घट स्थापना कर 50 वर्षों तक तपस्या की। वेदों और उपनिषदों के इस विज्ञ ने शक्ति साधना का वास्तविक रूप दुनिया के समक्ष प्रस्तुत किया। उन्हें ब्रह्म यज्ञ के आयोजन के लिए प्रसिद्ध रूप से याद किया जाता है । यह चक्रवर्ती राजा युधिष्ठिर के बाद पृथ्वी पर किया गया अनुपम वैदिक अनुष्ठान था । पूर्वी संगीत में सिद्ध स्वामी को 2 जून 1979 की आपदा को नियंत्रित करने के बाद उनके चमत्कारिक अवदान को वर्ष 1962 के चीन-भारतीय युद्ध में देखा गया ।
पौराणिक कथाओं के अनुसार असुरराज नरकासुर द्वारा पत्नी बनाये जाने की घृष्टता से छुटकारा पाने के लिए माता ने उसे एक रात्रि में ही नील पर्वत पर चारों तरफ पत्थरों के चार सोपान पथों का निर्माण करने की शर्त रखी अन्यथा उसकी मृत्यु निश्चित। इस प्रकार देवों की कुक्कुट योजना ने नरकासुर के कुत्सित चेष्टा को निष्फल कर दिया जो नरकासुर की मृत्यु का कारण बना। यह स्थान आज भी `कुक्टाचकि' के नाम से विख्यात है। नरकासुर की मृत्यु के बाद उसका पुत्र भगदत्त कामरूप का राजा बना। भगदत्त का वंश लुप्त हो जाने से कामरूप राज्य छोटे-छोटे भागों में बंट गया और वहां सामंत राजा का शासन हो गया। नरकासुर की दुष्टता से पीडि़त विशिष्ट मुनि के अभिशाप से देवी अंतर्ध्यान हो गयी थीं और कामदेव द्वारा प्रतिष्ठित कामाख्या का यह मंदिर के भग्नावशेष रह गये।
त्रेतायुग में रावण और राम दोनो ही ‘दुर्गा’ की भक्त हैं। इस अनुष्ठान में वांछित कमल के प्रतीक में श्रीराम कमलनैन अर्पित करने को उद्यत होते हैं। उधर द्वापर में कौरव और पाण्डव दुर्गा के भक्त हैं। इस संबंध में लक्ष्यप्राप्ति निमित्त अर्जुन अपने पुत्र अरावन की बलि देते हैं। दोनो परस्पर आसक्ति के प्रतीक हैं जिनसे मोहभंग जुड़ा है। वन में कोई पीड़क होता है, न पीडि़त लेकिन संस्कृति में सब पीडि़त होते हैं। ऐसी स्थिति में हम उस नायक की तलाश करते हैं जो पीड़ादायक को नष्ट कर दे, जबकि यह मानवता का सबसे बड़ा भ्रम है।
यह धारणा एक अन्य धारणा संपत्ति पर निर्भरता को लेकर मानव मूल्य पर आधारित है। शिव साधु इस धारणा को अस्वीकार करते हैं जबकि विष्णु, गृहस्थ इस धारणा की उत्पत्ति को मानवीय भय से जोड़ते हैं। हम नहीं जानते कि हम कौन हैं और हमारे जीवन का उद्देश्य क्या है इसलिए हमें संपत्ति बनाने और संग्रहण की सांत्वना मिलती है। यही कारण है कि देवी पर प्रभुत्व चाहने वाले ब्रह्मा को शिव से अपना सर कटवाना पड़ता है।
दक्षिण की एक कहानी में कन्या कुमारी पत्नी बनने की इच्छा से शिव का आह्वान करती है लेकिन देवता इससे व्यथित हैं। क्योंकि जब तक वह कन्या हैं तभी तक उनमें राक्षसों को मारने की शक्ति है। आखिर में एक षड़यंत्र के तहत शिव से विवाह करने में वंचित हो दक्षिणी सिरे पर खड़ी राक्षसों का विनाश करती है और समुद्र को उसकी सीमाओं में बांधती है।
समष्टि पोषण के लिए शिव को शंकर बनाने निमित्त जिस माता को कोटिश: सती होना पड़ा, वह श्रीविष्णु के स्पर्श से जीवंत हो शक्तिपीठ के रूप में आज भी हमें पल्लवित कर रहा है। इस प्रकृति ने ही मानवता को संस्कृति के लिए प्रतिबद्ध किया है। जहॉं अयोग्य भी संपन्न हैं लेकिन, संयम और सामंजस्यतापूर्ण आचरण से इस पारिस्थितिकीय तंत्र को अक्षुण्ण रखने वाले ही अमरत्व को प्राप्त होते हैं। नग्नता और खुले केश के साथ प्रचण्ड काली प्रकृति का प्रतीक है जबकि पत्नी, भगिनी, सुता के रूप में श्रृंगारयुक्त गौरी स्वरूप संस्कृत है। उससे वात्सल्यमय स्नेह प्राप्ति के लिए हम उसे संपूर्ण श्रृंगार अर्पण करते हैं ताकि वह प्रचण्ड काली स्वरूप त्यागकर करुणामयी गौरी का दर्शन दे। क्योंकि हम देवत्व स्वरूप को मन के साथ और दैवीय स्वरूप को प्रकृति के साथ जोड़ते हैं। हम मन के साथ सृष्टि को वश में करना चाहते हैं लेकिन हमें स्मरण रखना होगा कि सृष्टि से सामंजस्य बनाते हुए मन का तोषण ही शिवत्व है।
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