वेलेंटाइन डे : अनंग प्रेम में दाम्पत्य का उत्कर्ष

( राकेश कुमार वर्मा )
सूर्योदय से पूर्व जब उषा देवी के ओजस्वी, चन्द्ररता(वाणी की मधुरता) प्रेमपूर्ण कमनीय सौन्दर्य से यह प्रकृति हर्षातिरेक से आच्छादित हो जाती है, तब प्रत्येक जीव अपने कार्य में प्रवृत हो जाता है। उषा शब्द का अर्थ है - प्रकाशमान होना। उषस् सुक्तम् में उषा को सूर्य की प्रेमिका कहा गया है, जो विलक्षण कलाओं से युक्त आगे चलते हुए सूर्य को कीर्तिवान बनाती है।
आयतीमग्न उषसं विभाति वाममेषि द्रविणं भिसमाण:
ऋषि विश्वामित्र कहते हैं कि हे अग्निदेव! ऐसी प्रकाशमान देवी से हवि प्राप्त कर तुम अभीष्ट(कल्याणकारी द्रव्यों को अर्पित करने की क्षमता) को प्राप्त होते हो। लौकिक जीवन में इसी प्रकार मानव दाम्पत्य की सार्थकता को प्राप्त होता है। इसके लिए एक उचित वय में परस्पर वरण कर उन्मुक्त आनंद को प्राप्त किया जा सकता है। क्योंकि–
रूपस्य हन्ति यशनम् बलस्य, शोकस्य योनि: निद्यणम रतिणाम्।
अश्वघोष ने वृद्धावस्था के दोष बताते हुए बुद्धचरित में कहा हैं कि यह रूप का हनन करने वाला, बल का क्षय करने वाला और शोक की योनि(दु:ख को जन्म देने वाली) है, जहॉं आकर काम (प्रेम) का लोप हो जाता है। प्रेम के देवता कामदेव का आयुध(धनुष) गन्ने से जबकि उसकी प्रत्यंचा मधुमक्खी व तितलियों से शोभित है।
काम कुसुम धनु सायक लीन्हे। सकल भुवन अपनें बस कीन्हे।
अर्थात् शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध से युक्त बाण इन्द्रियों के श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, जिह्वा और नासिका को भेदकर हमें अन्न, संतुष्टि और प्रसन्नता के लिए तड़पाते हैं। तात्पर्य कि उनके बाण जब किसी निर्जीव(पार्थिव) को भेदते हैं तो वह भूख, प्यास, और कामनाओं की पूर्ति के लिए जीवंत हो उठता है। यही आकांक्षा हमारे भाग्य को निर्धारित करती है। वैसे प्रेम शारीरिक, मानसिक और आत्मिक तलों पर होता है, जिसका संबंध क्रमश: शारीरिक विज्ञान, मानसिक स्थिति और शाश्वत(सूक्ष्मता) से है। यहॉं प्रेम का अर्थ रति से है, जो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के स्तरों पर निर्भर करता है। साहित्यों में गंगा, दमयंती, इला, बुध, गंधवती, देवयानी, सावित्री, रत्नावली, यक्ष, यक्षिणियों के प्रेम के विविध स्वरूप मिलते हैं। इसके अलावा द्रोपदी, कुन्ती, अहिल्या, तारा, मंदोदरी का एक से अधिक विवाह होने के बावजूद उन्हें पंचकन्या कहा जाता है । धर्म संभोग केवल संतानोत्पत्ति का कारक है, यहां न कोई प्रेम होता है और न ही यौनसुख। अपितु यह कामरहित दायित्वबोध है जहॉं दिति व कश्यप ने हिरनयक्षा और हिरनकशिपु को जन्म दिया। इसी प्रकार देवहुति और कर्दम ऋषि ने सांख्ययोग के जनक कपिल को जबकि ऋषि वेदव्यास धृतराष्ट, पाण्डु और विदुर के जन्मदाता बने। काम संभोग में इंद्रियों के कामोन्माद का शमन किया जाता है। चूंकि समलैंगिक संभोग में कोई प्रजनन नहीं होता अत: वह अर्थ संभोग है। यह सौदे के लिए गणिका, नटी और देवदासी वर्ग द्वारा किया जाता है। महाभारत में गुरु ऋण चुकाने के लिए ययाति अपनी पुत्री माधवी का विवाह चार राजाओं से करते हैं। धन प्राप्ति के लिए सत्यवती (मत्स्यगंधा) के पिता शांतनु से उसका विवाह करते हैं। यहॉं संभोग (काम) एक व्यापार है जहां न श्रृंगार रस है न ही वात्सत्य। कथा सरित्सागर में दीन ब्राम्हण को धन देकर नपुंसक की पत्नी को संतानसुख देने के लिए प्रेरित किया जाता है, जिसे हम नियोग कहते हैं। वहीं जीवन और मृत्यु के चिरकालिक चक्र से मुक्ति के लिए ऋषि अत्रि और अनुसुइया के पुत्र मद्यपात्रधारी दत्ता की गोद में बैठी लक्ष्मी काम से मुक्ति की ओर संकेत करती है। तंत्रशास्त्र में मत्स्येन्द्रनाथ और गोरखनाथ की कहानियों में कदलीवन की रहस्यमयी योगनियां उनसे ही शक्तियां बॉंटती हैं जो उनसे संभोग की क्षमता रखते हों। इस प्रकार शास्त्रों में वर्णित विभिन्न यंत्रयोग में गृहस्थों (नागरिकों) को काम व अर्थ श्रेणी की तथा ब्रम्हचर्य के साथ ऋषियों को यंत्रयोग अनुकरण की अनुशंसा की गई है। तांत्रिकों के लिए मोक्ष संभोग है, जो तंत्र से जुड़े वामाचार का पालन करते हैं।
विवाह वस्तुत: एक सामाजिक अभिशरण है जो हमें मूल्यों और उत्तरदायित्व से आबद्ध करता है, इसलिए कन्यादान(विवाह) को श्रेष्ठ माना गया। वात्सायन ने यंत्रयोग सूत्रों की समरत रचना में पुरूष श्रेणी में शश, वृषभ अश्व और स्त्रियों में मृगी, बड़वा और हस्तिनी को श्रेष्ठ माना है। इस प्रक्रिया में स्वयं कन्या, माता, पिता, भाई और अन्य संबंधियों का दृष्टिकोण भिन्न होता है:-
कन्या वरेति रूपम, माता वित्तम पिता सुखम्,
बान्धवा कुल विच्छन्ति, मिष्ठान्न मित्रे जना।
अर्थात् वर चयन प्रकिया में कन्या उसके रूप, माता उसके धन, और पिता उसके भावी सुख, भाई उसके उत्तम कुल को प्रधानता देते हैं वहीं मित्र और संबंधी विवाह में परोसे जाने वाले व्यंजनों को।
समुद्र शास्त्र में लक्षण के आधार पर कन्या को मुख्यत: 5 भागों में विभाजित किया गया है। पद्मिनी- सुशील, आकर्षक शंखिनी- जिन्हें भोग-विलास प्रिय है, चित्रिणी-कलाप्रेमी, हस्तिनी-अनियंत्रित स्वभाव और पुंश्चली- लज्जाहीन, कठोर स्वभाव वाली। इस प्रकार उक्त लक्षणों के कारण कन्या अपनी प्रवृत्ति अनुसार विभिन्न श्रेणियों के वर का चयन करती है। यदि किसी कारणवश विवाह नही हो पा रहा है तो कन्या और युवक को स्वयं इसके लिए साम, दाम, भेद सहित समस्त योगों के साथ प्रयास करना चाहिये। ऐसी स्थिति में युवती को अपने कौमार्य की रक्षा करते हुए इच्छानुसार वर की प्राप्ति हेतु हर संभव चेष्टा करना चाहिये। इसके लिए उसे युवक को पूर्ण विश्वास जीतना होगा। इच्छाशक्ति से डावाडोल युवक के वरण में उसे हानि भी उठानी पड़ सकती है जबकि श्रेष्ठ गुण और विशिष्ट कला में दक्ष अथवा धनवान युवक के वरण में विशेष सावधानी की आवश्यकता होती है। ऐसे युवक के विवाहेतर संबंध की प्रबल संभावना होती है। कुछ व्यवसाय, पेशे, कुचेष्टा(नागरिकता प्राप्ति में) या षडयंत्र(लव जेहाद) से जुड़े ऐसे लोग भी होते हैं जिन पर विश्वास नहीं किया जा सकता। यौन हिंसा पश्चात दवाब पर बनी सहमति की स्थिति में हुए विवाह को सफल नहीं माना जाता, इसलिए युवतियों को संयमित और सावधानीपूर्वक इस ओर बढ़ना चाहिये। वही युवक को भी इसी प्रकार युवती के गुण-लक्षण का विहंगावलोकन करते हुए वरण का प्रयास करना चाहिये क्योंकि, विदुर नीति के अनुसार शिश्न और उदर के निग्रह में धैर्य अनिवार्य है और इन्हीं पर नियंत्रण खोने के कारण आज अपराध, विवाद और रोगों का सम्राज्य व्याप्त है।
वर्तमान युग की अतिमहत्वकांक्षी प्रवृत्ति ने इस सूत्र की उपेक्षा कर आभासी, एकाकी या सहजीवन(लिव इन रिलेशन) की ओर उद्ययत किया है। बाजारवाद से नियंत्रित मानववृत्ति के चलते विवाह जैसी संस्थाओं का अस्तित्व खतरे में है। हालांकि अंतरसंजाल और प्रौद्योगिकी के दुरूपयोग इसके लिए ज्यादा जिम्मेदार हैं। इन अस्त्रों की अदृश्य धार आज अबाल वृद्ध समुदाय को रंजित कर रही है।
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