मदनोत्सव : प्रकृति का मुक्ति दर्शन

( राकेश कुमार वर्मा )
उद्यम या यज्ञ का बीज काम (इच्छा) है।
काम के अभाव में उद्यम औचित्यहीन हो जाता है। क्षीरसागर(दूध का समुद्र) को यदि रूपक माना जाये तो कच्चा दूध वह जीवन है जो हमें प्रारंभ में मिलता है, जबकि मक्खन वह है जो हम जीवन या दूध से बना सकते हैं। बैरागी शिव विश्व का परिवर्तन नहीं चाहते, इसलिए भोग में उन्हें कच्चा दूध चढ़ाया जाता है। दूसरी ओर विष्णु परस्पर प्रेम के लिए मंथन और संघर्ष से दूध(मानव प्रकृति) को मक्खन(पुरुषार्थ) में परिवर्तन करना चाहते हैं। इसलिए उन्हें(श्रीकृष्ण) मक्खन का भोग चढ़ाया जाता है। इस प्रकार शिव और विष्णु प्रकृति के प्रत्युत्तर में अंतस चेतना के विविध स्वरूपों को जाग्रत करते हैं। वहीं देवी शक्तियों को हम आंवला, नीबू, मिर्ची और बलि अर्पित करते हैं, जो हमारे आसपास के बाहरी विश्वरूप का प्रतीक है। इस प्रकार देव हमारे मन, आत्मा, चैतन्य रूपी आंतरिक प्रकृति का शोधन करते हैं जबकि दैवीय शक्तियां हमारे बाहरी जगत के कामेच्छा की।
हिन्दू धर्म में संस्कारगत ऋण चुकाने पर ही मोक्ष मिलता है। इसलिए धन के निर्माण और उसके संचालन के लिए योग नहीं भोग महत्वपूर्ण है। बैरागी शिव के स्वर्ग में भूख(काम) नहीं है इसलिए कैलाश में उनका परिवार अभय के साथ निवास करता है। मोक्ष और मुक्ति के देवता जीवन की इच्छा और मृत्यु के भय को नष्ट कर देते हैं । जबकि जीवन से जुड़े काम के देवता पुष्पबाणों से माधुर्य,वासना और महत्वकांक्षायें जाग्रत कर हमें ऋणी बना देते हैं। विश्व को त्यागकर तप में लीन होने वाले योगी को बाजार(संपन्नता) की दृष्टि से श्रेष्ठ नहीं कहा जा सकता। क्योंकि समाज से पृथक योगी एकांतवास में स्वयं को समाज की जिम्मेदारियों से मुक्त रखते हैं। बौद्ध और जैन धर्म मानते हैं कि सांसारिक सुख से मुग्ध हुए भ्रम को तोड़कर ही ज्ञान की यात्रा आरंभ की जाती है। उन्होंने ब्रम्हचर्य को गुण और कामुकता को दोष माना। इस धारणा को शंकराचार्य, रामानुज और माधव जैसे आचार्यों ने अपनाया। वहीं उत्तरकालीन तांत्रिक संप्रदायों ने उर्ध्वरेतस (वीर्य को मेरुदण्ड की ओर) प्रवाहित कर सिद्धियां प्राप्त की। इस प्रकार ब्रम्हचर्य को सामाजिक कार्य के रूप में स्वीकार्यता की आम धारणा बनी, क्योंकि वह उसे मोह-माया से मुक्त, व्यक्तिगत सुखों से परे सामाजिक कल्याण में अनुरक्त मानती है। लेकिन यह मान्यतायें सांस्कृतिक कल्पना के अतिरिक्त विशेष महत्व नहीं रखतीं। इस भ्रम को तोड़ने के लिए ही शक्ति लोककल्याण के प्रति योगिराज शिव को उन्मुख करने के लिए बार-बार सती होकर उन्हें काशी लाने में सफल होती हैं । जहां अन्नपूर्णा देवी से भिक्षा प्राप्त कर शिव जगत की क्षुधाग्नि (भूख) शांत करने के लिए विश्वनाथ बन जाते हैं। कहा जाता है कि विश्वकल्याण के लिए शक्ति को सर्वप्रथम शंकरजी ने ही कामसूत्र सुनाया था जो नन्दी से होता हुआ बाभ्रव्य, वात्सायन जैसे आचार्यों के पास पहुंचा। कामसूत्र 1200 पद्यों वाली ऐसी कृति है जो प्रसन्नता और प्रेम के चिंतन से अभिभूत कराती है। वस्तुत: यह वासना के तत्वज्ञान और सिद्धांत के बारे में है, जो अनंग रंग के प्रेम और काम में रासायनिक तत्वों और ज्योतिषशास्त्र की अहम भूमिका को रेखांकित करती है। इस प्रकृति का निर्माण स्त्री और पुरुष से मिलकर हुआ है इसलिए शिव को अर्द्धनारीश्वर कहा गया।
जब कोई स्त्री मुक्ति के करीब पहुंचती है तो उसमें पुरुष जैसे फूल खिलते हैं वहीं पुरुष की मुक्ति में स्त्री जैसे फूल। क्योंकि माता-पिता के संयुक्त बीजों से प्रत्येक जीव जन्म लेते हैं। अंतर केवल इतना होगा कि पुरुष में पौरुष बाहर होगा जबकि स्त्रैण गुण भीतर छिपा होगा। अर्थात स्त्री गहरे में होगी व पुरुष परिधि पर होगा। उधर स्त्री में स्त्रैण गुण सतह पर और पौरुष गुण अंतस मे विसुप्त होगा। जब उनकी चेतना मुक्ति की ओर प्रेरित होगी अर्थात केंद्रबिंदु पर पहुंचेगे तो अब तक जो गुण अदृश्य था वह प्रकट होगा । फिर उस पुरुष को नवीन ऊर्जा और स्फूर्ति के साथ स्त्रैण गुण आच्छादित कर लेती है इसलिए बुद्ध स्त्रैण को प्राप्त होते हैं। स्त्रियों में बुद्धत्व की उपलब्धि बौद्धिक योगी का भाव उत्पन्न करती है, छिपा हुआ पुरुष अचानक प्रकट हो जाता है। अंतिम लक्ष्य की ओर बढ़ते हुए अर्थात केंद्रबिंदु पर स्त्री पुरुष का इन्द्रधनुषी गुण परस्पर लोप होकर रंगहीन हो जाता है, यही मुक्ति है। इसलिए इसे अद्वैत कहा गया अर्थात दो नहीं अपितु एक ही है। अर्थात जहां न स्त्री है न पुरुष। यही तथ्य सनातन धर्म में ब्रम्ह को नपुंसक लिंग के प्रतीक में देखता है। जीसस अपने शिष्यों से पूछते हैं कि क्या तुम अपने परमात्मा के लिए नपुंसक हो सकते हो? क्योंकि सच्चाई यही है कि अंतिम क्षण में हम लिंग से मुक्त हो जाते हैं। यहूदियों के एक शास्त्र मिद्रश में कहा गया है –‘द तौरात हेज टु पाथ। वन इज ए सनलाइट एण्ड एनादर इज ए स्नो’…. अर्थात् धर्म के दो मार्ग हैं- सूर्य की उष्णता और हिम की कठोरता । यदि हम पहले मार्ग का अनुशरण करते हैं तो उष्णता से और दूसरे मार्ग का अनुशरण करते हैं तो शीत से नष्ट हो जायेंगे। ऐसे में हमें मध्यमार्ग का चयन करना होगा। वह मध्य मार्ग न पुरुष होगा न स्त्री। लेकिन यह अवस्था तो केंद्रबिंदु में पहुचने पर मुक्ति स्वरूप प्राप्त होती है। इस प्रकार के गुण विनाश या मुक्ति से उद्गम(गर्भबीज) उपलब्ध होता है।
स्त्रैण चित्त की अभिव्यक्ति ध्यान की नहीं अपितु प्रेम की है उसमें ध्यान प्रेम से ही उत्पन्न होता है। उसके लिए ध्यान का नाम प्रार्थना है जबकि पुरुष वस्तुत: अकेला ही जीना चाहता है । अहंकारमुक्त नही होना चाहता। क्योंकि उसके लिए झुकना पड़ता है या दूसरे के तल(समकक्ष) पर आना पड़ता है। मैत्री का अर्थ ही यही है कि हम दूसरों को अपने समकक्ष स्वीकारे। जबकि प्रेम तो अन्य को अपने से श्रेष्ठ मानता है। इसलिए मन में द्वंद लिए पुरूष को मैत्री, प्रेम और प्रार्थना दुर्लभ है। पश्चिम में समर्पण के लिए ‘सरेण्डर’ शब्द है, जो पुरुष की निर्बलता का भाव लिए हुए है। जबकि पूरब का समर्पण सुकोमल, माधुर्य और अनुराग से झुकने का स्त्री भाव समेटे हुए है। पुरुष योद्धा(ध्यान, तप, निराकार,योग जैसे निर्गुण भाव) है, जबकि स्त्री ममता, करुणा, अहिंसा, दया, प्रार्थना, पूजा, अर्चना के गुणों के साथ समर्पित। स्त्री को पुरुष के ये भाव कोरे मालुम पड़ते हैं क्योंकि पुरुष के उक्त भावों में हम मिट सकते हैं, डूब(रम) सकते हैं, महसूस कर सकते हैं लेकिन उनके साथ जीवन नहीं जी सकते। जीवन जीने के लिए तो उसमें आकार होना आवश्यक है जिसके साथ बंध सकें, उसका स्पर्श कर सकें। इसलिए संत कहते हैं कि फूल, पत्ते, पहाड़, झरने, नदी जैसे जगत के चराचर जीव सब उसके ही रूप हैं।
( लेखक आकाशवाणी से संबद्ध हैं , संपर्क : 9926510851 )
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